आयुकर्म के आगे विज्ञान, तंत्र और मंत्र सब बेबस, ज्योतिष और अनुसंधान भी नहीं बदल सके मृत्यु का लेखा-मुनिश्री निर्भीक सागरजी

आगरा से आए जैन विद्वान बैनाड़ाजी और अन्य अतिथियों ने किया दीप प्रज्जवलन तथा शास्त्र भेंट ...                    [सुमित जैन द्वारा]




गुना [जनकल्याण मेल] बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने काफी रिसर्च किया कि हम मृत्यु को आत्मतत्व को रोक सके। इसके लिए बड़ी-बड़ी कांच की पेटियां में अंतिम सांस लेने वाले जीव को रखा गया। परंतु मृत्यु को उस जीव तत्व को रोक नहीं सके। बड़े-बड़े ज्योतिषों ने मंगल, शुक्र, केतु, शनि सभी नवग्रह के चक्कर में फंसकर अपना समय ही बर्बाद किया पर मृत्यु को रोकने में समर्थ नहीं हो सके। आयु कर्म के समाप्त होने पर ही मरण होता है। महाभारत में अर्जुन द्वारा भीष्म पितामह को बाणों से छलनी कर दिया था। कहते हैं उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान था। उन्होंने अर्जुन से उस सत्य को अपनी आंखों से देखने के लिए वह उन बाणों पर लेटे-लेटे सबकुछ देखते रहे। लेकिन वास्तविकता में उनकी आयु कर्म शेष होने के कारण ही यह सब संभव हो सका। उक्त धर्मोपदेश चौधरी मोहल्ला स्थित महावीर भवन में चातुर्मासरत निर्यापक मुनिश्री योग सागरजी महाराज के ससंघ मुनिश्री निर्भीक सागरजी महाराज ने दिए। मुनिश्री ने कार्तिकेअनुप्रेक्षा ग्रंथ का स्वाध्याय कराते हुए कहा कि तृयंच और मनुष्य गति में ही अकाल मरण होता है। नरक और देवगति में अकाल मरण नहीं हो सकता। आयुकर्म शेष है तो अकाल मरण को रोकने में औषधि काम आती है आयु को बढ़ाने में नहीं। इसलिए मुनिराज की दीक्षा लेेने के बाद ही उनका संल्लेखना व्रत चालू हो जाता है। मुनिश्री ने कहा कि व्यक्ति के आयु के क्षय होने से मरण होता है। इस मरण को रोकने के लिए कोई कितना भी बलशाली, शक्तिशाली योद्धा हो वो भी कितने भी तंत्र-मंत्रों से महामृत्युंजय मंत्रों की साधना करें पर वह भी मृत्यु पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता, उसे मरना ही होगा। परंतु हमारा आयु कर्म शेष है और एक्सीडेंट, विष, जहर भी खा लेंवे तो औषधि और उपचार काम आते हैं। हमारा जीवन बच जाता है, मगर आयु को बढ़ाने में औषधि काम नहीं आती।

मुनिश्री ने बताया कि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज कहते थे कि मुनिराजों की दीक्षा लेते ही उनके संल्लेखना के व्रत चालू हो जाते हैं। अंत में जिस श्रद्धा, भक्ति, समर्पण से उन्होंने साधना की है अंतिम संल्लेखना भी महामंत्र णमोकार का, पंच परमेष्ठी का, ओम शब्द का उच्चारण करते होती है। मात्र ओम शब्द में ही पांचों परमेष्ठी समाहित है यह मंत्र हमें मोक्ष की मंजिल तक साथ देता है। इस दौरान मुनिश्री ने पिछले वर्ष चातुर्मास में मुनिश्री निर्दोष सागरजी, निर्लोभ सागरजी, निरूपम सागरजी महाराज द्वारा णमोकार मंत्र की जाप मशीन द्वारा गुना समाज में करोड़ों मंत्रों का जाप करने की प्रेरणा दी थी। वह मंत्र हमें अशुभ कर्मों से शुभ कर्मों की ओर ले जाने वाला है ऐसे महामंत्र का स्मरण प्रतिक्षण करते रहना चाहिए।

इस अवसर पर मुनिश्री ने कहा कि जो विद्या को ग्रहण करना चाहता है वह विद्यार्थी है। जो सुख चाहता है वह विद्यार्थी नहीं हो सकता। सुख-भोग, विलासता को त्याग कर हम गुरु या शिक्षक से ज्ञान अर्जन कर सकते हैं। अहंकार हमें अंधा बना देता है। इस अहंकार को त्याग कर हमें सच्चा ज्ञान को प्राप्त करना है। बच्चों को विद्यार्थियों को पत्थर दिल नहीं फूल की तरह कोमल होना ह्दय बनना चाहिए। तभी वह शिक्षक-शिक्षिकाओं, गुरुजनों से ज्ञान प्राप्त कर सकता है। जब पढ़-लिख कर वह बड़े पदों पर आसीन होंगे,तब उन्हें शिक्षकों द्वारा दिया गया ज्ञान याद आएगा। इस मौके पर जैन समाज अध्यक्ष संजय जैन एवं महामंत्री अनिल जैन ने बताया कि कार्यक्रम का शुभारंभ आगरा से आए पन्नालाल बैनाड़ा और अन्य अतिथियों द्वारा दीप प्रज्जवलन तथा शास्त्रदान कर किया गया। उल्लेखनीय है कि प्रतिनि प्रात: 8:30 बजे से मुनिसंघ के प्रवचन होते हैं।